दिव्यता भरी अनमोल आध्यात्मिक कविताएं Anmol Adhyatmik Kavitayen। आध्यात्मिकता के बिना जीवन को श्रेष्ठ और महान बनाना असम्भव है । लेकिन आध्यात्म को अपनाने की प्रेरणा कहां से ली जाए । इसी सन्दर्भ में मेरी स्वरचित दिव्यता भरी अनमोल आध्यात्मिक कविताएं Anmol Adhyatmik Kavitayen आपको सही मार्गदर्शन प्रदान करेगी । इनका अध्ययन करने के बाद जितना मनन व चिन्तन करेंगे, उतना ही आपके जीवन में आध्यात्म को धारण करना सरल हो जाएगा । तो प्रस्तुत है मेरी स्व रचित दिव्यता भरी अनमोल आध्यात्मिक कविताएं Anmol Adhyatmik Kavitayen –
सच्ची जीवनमुक्ति पाएगा
शुद्ध, शांत व ज्ञानस्वरूप, मैं आत्मा कहलाता।
लेकिन संसार के मोह में, हर जन्म ठगा जाता।।
क्षणिक सुख के पीछे, मन को बहुत भटकाया।
किन्तु जीवन भर मैंने, कुछ भी लाभ ना पाया।।
जन्म जन्म देह पाकर, पापों का भार चढ़ाया।
मुक्ति के बदले स्वयं को, संबंधों में उलझाया।।
मन में कुटील विचारों के, हिंसक पशु विचरते।
वासना का लोभ देकर, स्वयं हमको ही चरते।।
संबंध बदल गए बंधन में, हुई असाध्य व्याधि।
उपचार करो इसका, लगाकर स्वयं में समाधि।।
भौतिक सुख हैं दुखदाई, कर इन्हें अस्वीकार।
तन से असंग होकर, आत्मरूप कर अंगीकार।।
दृढ़ता पूर्वक बंद कर, मन में भ्रांतियां बिठाना।
काम यही केवल इनका, दुख अशांति फैलाना।।
देह सबकी है केवल, इन जड़ तत्वों की रचना।
सुख पाना है तो इसके, मोह से पूरा ही बचना।।
एकांकी होकर जो, आत्मस्वरूप में खो जाता।
भूलकर उसके जीवन में, दुख कभी ना आता।।
भूल गया आत्मभान तो, मोह में फंस जाएगा।
नाम रूप के आकर्षण में, सत्यानाश कराएगा।।
मोह के बंधन से खुद को, पूरा ही मुक्त कराना।
संसार के प्रपंच छोड़कर, सच्चा सुख का पाना।।
कोई विकार तेरे अन्दर, जब नजर ना आएगा।
हर बंधन से छूटकर, सच्ची जीवनमुक्ति पाएगा।।
ऊँ शान्ति
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दिव्यता भरी अनमोल आध्यात्मिक कविताएं
पाओ चिर आनन्द
धर्म अधर्म और सुख दुख, सब मन के व्यापार।
मुक्ति इनसे होंगे जब, आत्मरूप होगा स्वीकार।।
पहचान नहीं ये तन तेरा, तू है आत्मा अविनाशी।
भान तभी ये होगा जब, भोगों से होगा सन्यासी।।
स्वामी है स्वयं का तू स्वयं ही, तू ही तेरा नाथ।
डूबे या उबरे भवसागर से, ये सबकुछ तेरे हाथ।।
भूत जगत में खोकर तू, भूला अपना ही स्वरूप।
जल भुनकर राख हुआ, पाकर राग द्वेष की धूप।।
धर्म, वर्ण और जाति का, अहंकार इतना पाला।
खुद को फंसाया इसमें, बंधन का बुनकर जाला।।
सांसारिक तृष्णा का, निरंकुश होकर किया पान।
उपहार स्वरूप जीवन का, किया बहुत अपमान।।
स्वयं को देह समझकर, गर्त में ही गिरता आया।
घोर अज्ञान के वन में, स्वयं को इतना भटकाया।।
तन है मल पिण्ड समान, जिस पर हम ललचाते।
इसके आकर्षण में हम, अपना आत्मबल गंवाते।।
देख लिया परिणाम इसका, केवल दुख ही पाया।
सहनशक्ति समाप्त हुई, नयनों से आंसू बरसाया।।
बात समझ में आई तो, भूल अपनी देह का भान।
आत्मभान जब जागेगा, तब पाएगा मन विश्राम।।
जागृत करो निरन्तर, आत्मभान का हर लक्षण।
संस्कार शुद्धि से कर लो, हर विकार का भक्षण।।
सदा के लिए छोड़ो, भ्रमित जग में करना भ्रमण।
आत्मा के गुणों में अब, सदा ही करते रहो रमण।।
देहभान को छिन्न भिन्न कर, चला ज्ञान तलवार।
मुक्ति पाएगा दुख से, होगा तुझ पर ही उपकार।।
पंच तत्वों से जिसने भी, लिया हो रूप साकार।
सावधान रहना सदा, उनमें छिपे हैं पांच विकार।।
तू है अविनाशी आत्मा, मन में जगा ये विश्वास।
देख वही सत्यस्वरूप, केवल उसमें कर निवास।।
आत्म शुद्धि को बना लो, अपनी पहली पसन्द।
निर्मल शुद्ध चेतना बनकर, पाओ चिर आनन्द।।
ऊँ शान्ति
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दिव्यता भरी अनमोल आध्यात्मिक कविताएं
वैराग्य का सुगम पथ
कैसे हो वैराग्य उदय, समझ ये कैसे आएगा।
बड़ी विकट पहेली है, कहो कौन सुलझाएगा।।
दुर्लभ हुआ मेरे लिए, मार्ग मुक्ति का ये पाना।
दुख से छुड़ाने वाला, समय ना देखा सुहाना।।
हर जन्म मन की पीड़ा, मुझको बहुत सताती।
इससे छुटकारा पाने की, राह नजर ना आती।।
समझाया ईश्वर ने हमें, ये कार्य बड़ा आसान।
पांच विकारों को देखो, विषधारी सर्प समान।।
जीवन पथ में जब कोई, ये विकार अपनाता।
जन्म जन्म वो केवल, दुख पीड़ाएं ही पाता।।
मन के कुतर्क विचार ही, भवसागर कहलाते।
इनमें डूबने वाले कभी, सुख शान्ति ना पाते।।
विकारों में पड़कर हमने, मनोरोग ही बटोरा।
भिक्षुक होकर भटक रहे, लेकर हाथ कटोरा।।
इन्द्रियों के सहारे हमने, देखा ये सारा संसार।
सबकुछ यहां विनाशी, समझ ना आया सार।।
जड़ वस्तुओं के पीछे, हमने मन को लगाया।
लोभ के वश होकर, खुद को बहुत जलाया।।
विकारों का विष पीकर, आत्मभान है खोया।
जकड़ा जब कष्टों ने, तब फूट फूटकर रोया।।
तन के मोह में फंसकर, बन गए कितने दीन।
ध्यान हटाकर इनसे, हो जाओ स्वयं में लीन।।
मन को उत्तेजित करे, वे विकार अब त्यागो।
छोड़ो अज्ञान निंद्रा और, स्वचेतना से जागो।।
क्षमा, दया और सत्य का, रोज करो रसपान।
संतोष सरलता का, सेवन करो अमृत समान।।
बनो सच्चे साधक, सात्विकता को अपनाओ।
धारो श्रेष्ठ आचरण को, मन पर विजय पाओ।।
सत्यभाव श्रेष्ठकर्म को, बनाना सच्ची साधना।
आत्मरूप की स्मृति ही, हो सच्ची आराधना।।
पंच तत्वों के मोह से, स्वयं को पूरा छुड़ाओ।
वैराग्य के सुगम पथ पर, रोज चलते जाओ।।
देह का भान छोड़कर, आत्म चेतना जगाओ।
सच्ची शान्ति देने वाला, गहन विश्राम पाओ।।
ऊँ शान्ति
दिव्यता भरी अनमोल आध्यात्मिक कविताएं
सुख ही बरसेगा
मैंने स्वयं को देखा, जब होकर पूर्ण अव्यक्त।
मेरे सम्मुख मेरे ही द्वारा, प्रश्न हुआ ये व्यक्त।।
धन कमाने के पीछे, मैं इतना क्यों आसक्त।
आत्मशुद्धि में क्यों मेरा, बीत ना पाता वक्त।।
अच्छे जीवन के लिए, आवश्यक होता धन।
लेकिन इसके पीछे मैंने, त्याग दिया भजन।।
गुम हुई शांति, जब से धन का लोभ जगा।
इसी धन के लालच ने, मेरा सुख चैन ठगा।।
औषध तुल्य जब कोई, चीज काम में आती।
जीवन में तभी वो चीज, सुखदाई कहलाती।।
आत्मज्ञान का नगण्यता, विकारों में फंसाती।
दुखदाई सुख के भ्रम में, पूरा हमें उलझाती।।
हर सांसारिक इच्छाएं, मन में घोलती जहर।
शांत ना होने देती मन को, ये आठों ही प्रहर।।
इनके पीछे दौड़ने वाला, दीनहीन कहलाता।
दुखों के सागर में वो, हर जन्म गोते लगाता।।
मन में जगी इच्छाएं, ज्ञान का शत्रु कहलाती।
सारा विवेक मिटाकर, मनोरोगी हमें बनाती।।
हर इच्छा के विरूद्ध, दिखा जीतकर दंगल।
आत्म शुद्धि से आएगा, तेरे जीवन में मंगल।।
अपने आत्मस्वरूप का, करते रहना चिन्तन।
इच्छाओं से मुक्ति का, करना मन में मन्थन।।
सर्वगुण सम्पन्न आत्मा, सुन्दर ही कहलाती।
उसके जीवन में दुख की, लहर नहीं आती।।
गुण सौन्दर्य से होगा, जीवन का मुल्यांकन।
सुख ही बरसेगा इनसे, तेरे हृदय के आंगन।।
ऊँ शान्ति
दिव्यता भरी अनमोल आध्यात्मिक कविताएं
आत्मज्ञानी का यशगान
विश्व रंगमंच पर, मानव जीवन खेल समान।
सुख दुख एक दिखावा, इसको लो पहचान।।
अच्छा हो या बुरा समय, आकर चला जाता।
मन में चिंता ढ़ोने वाला, महामूर्ख कहलाता।।
आत्मज्ञानी और धैर्यवान, रहते सदा प्रसन्न।
द्वंद्व भरे प्रश्न ना होते, उनके मन में उत्पन्न।।
दुख निन्दा रोग वियोग, हानि या तिरस्कार।
क्षणिक स्वप्न समान, करते उनको स्वीकार।।
देहिक प्राप्तियों से, स्वयं को नहीं चिपकाते।
निर्लिप्त रहकर इनसे, सदाचार ही अपनाते।।
भोगों में तृप्ति नहीं, उन्हें सदा रहता ये ज्ञान।
ऐश्वर्य और प्रतिष्ठा में, ना भूलते आत्मभान।।
केवल आत्म स्मृति ही, उनका मूल स्वभाव।
नजर ना आता उनके, संकल्पों में बिखराव।।
उनका अंतःकरण रहता, पापों से स्पर्शमुक्त।
सबके प्रति दयालु, स्वभाव से सरलतायुक्त।।
इच्छाओं से न्यारेपन का, बल उनमें समाया।
सदा स्वच्छ और पवित्र, रहती उनकी काया।।
समता भाव से युक्त, रहते हमेशा आत्मलीन।
काल कभी ना पाता, उनके जीवन को छीन।।
महिमा उनकी अनंत, कितना करूं यशगान।
केवल आत्मज्ञानी ही, जगत में सबसे महान।।
ऊँ शान्ति
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