हम शरीर की इन्द्रियों द्वारा जीवन का संचालन करते हैं, किन्तु शरीर व इन्द्रियों से पृथक हमारी वास्तविक पहचान अर्थात् आत्मा की अनुभूति से अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं । आत्मा की अनुभूति करने के लिए उसकी परिभाषा, आकार, विशेषता और गुणों का ज्ञान होना आवश्यक है । प्रस्तुत आलेख सरल शब्दों में अवगत कराएगा कि आत्मा का स्वरूप क्या है।
आत्मा के विषय में अनेक व्याख्याएं उपलब्ध होते हुए भी इसके अस्तित्व को लेकर रहस्य अभी तक कायम है । आत्मा का रहस्य जितना सुलझाने का प्रयास किया गया, उतना ही यह उलझता ही गया है । इसीलिए आत्मा के बारे में जिज्ञासा मानव मन में रोमांच के रूप में सदा कायम रहती है । आत्मा के अस्तित्व को लेकर मन में व्याप्त भ्रान्तियां मिटाने और सहज आत्म अनुभूति करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि आत्मा का स्वरूप क्या है ।
आत्मा का स्वरूप क्या है ? आकार, परिभाषा एवं विशेषताएं
इस विषय में आम धारणा यही है कि आत्मा एक अदृश्य ऊर्जा है जो शरीर में प्रविष्ट होकर ही सक्रिय होती है । शरीर से बाहर होने की स्थिति में आत्मा का कोई मोल नहीं । जिस प्रकार एक कार ड्राइवर का महत्व उसके द्वारा कार चलाने पर ही होता है, उसी प्रकार आत्मा का महत्व शरीर में विराजमान होने पर ही होता है । आत्मा के निकलते ही शरीर निष्क्रिय हो जाता है । फलस्वरूप उस शरीर के जीवनकाल में बने हुए सभी सांसारिक सम्बन्ध भी समाप्त हो जाते हैं ।
भगवत गीता के अनुसार आत्मा का स्वरूप क्या है ?
सर्व शास्त्र मई शिरोमणी श्रीमत भगवत गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा अजर अमर अविनाशी है जो शरीर रूपी वस्त्र धारण करती है । जब शरीर क्षीण हो जाता है और धारण करने योग्य नहीं रहता तो आत्मा उसे त्याग करती है और दूसरा शरीर धारण करती है । इसलिए शरीर का नाश होता है, आत्मा का कभी भी नाश नहीं होता । आत्मा को किसी भी शस्त्र से काटा या घायल नहीं किया जा सकता, अग्नि से इसे जलाया नहीं जा सकता, पानी से इसे गलाया नहीं जा सकता और हवा से इसे सुखाया नहीं जा सकता ।
वैज्ञानिकों के अनुसार आत्मा का स्वरूप क्या है ?
आत्मा के अजर–अमर होने की मान्यता को वैज्ञानिक समर्थन भी मिलने लगा है। दीर्धकालिक शोधकार्य के पश्चात् ही विज्ञान जगत के लोगों ने यह दावा किया है कि आत्मा का नाश नहीं होता, केवल शरीर ही नष्ट होता है तथा शरीर की मृत्यु पश्चात् भी आत्मा द्वारा अर्जित सूचनाएं भी उसमें निहित रहती हैं ।
वेदों के अनुसार आत्मा का स्वरूप क्या है ?
लिंग पुराण अनुसार आत्मा शरीर ग्रहण करके अपनी सम्पूर्ण सत्ता स्थापित करती है और विषयों का भोग करती है । भारतीय दर्शन शास्त्रों में आत्मा को शरीर के माध्यम से निरन्तर सक्रिय रहने वाली शक्ति भी कहा गया है जो शरीर की मृत्यु के पश्चात् भी अविनाशी है। विभिन्न दर्शन शास्त्रियों के अनुसार आत्मा कर्मों की वाहक बताया है और उसका स्वरूप अणु समान है । उपनिषदों में आत्मा को विश्व का आधार और सम्पूर्ण प्रकृति के परिवर्तन का मूल कारण माना गया है ।
गुणों के आधार पर आत्मा का स्वरूप क्या है ?
शरीर से पृथक आत्मा को सतोगुणी कहा गया है अर्थात् आत्मा ज्ञान, शान्ति, प्रवित्रता, प्रेम, सुख, आनन्द और शक्ति का पंुज है । इन गुणों के अभाव ने हमारे जीवन को अनेक प्रकार की समस्याओं में घेर लेता है । किसी एक गुण की कमी होने पर हमारी मानसिक स्थिति असामान्य होने लगती है । आईए जानते हैं कि गुणों के आधार पर atma ka swarup kya hai आत्मा का स्वरूप क्या है –
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ज्ञान स्वरूप – मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृति ही है जो उसके मन में किसी ने किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करने में रुचि जगाती है । किसी न किसी विषय के प्रति ज्ञान प्राप्त करना आत्मा का नैसर्गिक गुण है । ज्ञान के बल पर ही मनुष्य आत्माए सदियों से अनेक प्रकार के अविष्कार करती आ रही हैं । इसलिए आत्मा ज्ञान स्वरूप है ।
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शान्त स्वरूप – भागदौड़ भरे जीवन में से हर व्यक्ति कुछ पल शान्ति में बिताने के लिए काफी लोग ऐसे एकान्त स्थान पर जाना पसन्द करते हैं जहां उन्हें शान्ति का अनुभव हो सके । शान्ति की अनुभूति शरीर के बजाए आत्मा की प्यास है । शान्ति आत्मा को प्रिय है । इसलिए आत्मा शान्त स्वरूप है ।
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पवित्र स्वरूप – पवित्रता का गुण हर आत्मा को अतिप्रिय है । इसीलिए हम स्नान करके शरीर को शुद्ध करते हैं, स्वच्छ वस्त्र पहनते हैं, घर को साफ सुथरा रखते हैं । हर आत्मा की यही कामना होती है कि उसके साथ कोई छल कपट ना करे, अर्थात् व्यवहार में शुद्धता होनी चाहिए । इसलिए आत्मा पवित्र स्वरूप है ।
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प्रेम स्वरूप – हम सभी यही चाहते हैं कि हमसे कोई शत्रुता या घृणा ना करे । सभी हमसे प्रेम करे । कोई क्रोध से बात करता है तब हम उसे प्रेम से बोलने के लिए कहते हैं । प्रेम करना और प्रेम पाना आत्मा की मूल आवश्यकता है जो उसे प्रसन्नता का एहसास कराती है । इसलिए आत्मा प्रेम स्वरूप है ।
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सुख स्वरूप – जीवन में हम अनेक प्रकार के भौतिक साधन जुटाते हैं । विवाह के माध्यम से सामाजिक सम्बन्ध जोड़ते हैं । उसके नैपथ्य में सुख प्राप्ति का उद्देश्य ही होता है । सुख का आदान प्रदान करना हर आत्मा को पसन्द है । इसलिए आत्मा सुख स्वरूप है ।
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आनन्द स्वरूप – आनन्द या आत्म सन्तुष्टि का अनुभव करने के लिए हम अनेक रचनात्मक कार्य करते हैं । कोई गीत संगीत में रुचि रखता है, कोई लेखन, चित्रकला व मूर्तिकला पसन्द करता है, किसी को भौतिक खोजबीन, पर्वतारोहण, भ्रमण तथा खेलकूद से आनन्द मिलता है । इन सभी कार्यों से हम जो अनुभूति करते हैं, उसे ही आनन्द कहा जाता है । इस प्रकार आत्मा आनन्द स्वरूप भी है ।
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शक्ति स्वरूप – किसी भी कार्य को करने के लिए बल होना आवश्यक है । एक पहलवान अच्छा भोजन करके व व्यायाम करके शरीर को बलशाली बना लेता है, किन्तु कुश्ती का मुकाबला होने से पहले अपने किसी ईष्ट देव से बल प्राप्त करने हेतु प्रार्थना अवश्य करता है । उस समय वह शारीरिक बल के बजाए मनोबल के लिए प्रार्थना करता है ।
आत्मा को प्रकाश स्वरूप क्यों कहा जाता है ?
आत्मा अदृश्य होते हुए भी उसका स्वरूप परिभाषित किया गया है । आत्मा अदृश्य है किन्तु वह एक ऊर्जा है । विद्युत ऊर्जा भी अदृश्य है जो अन्धकार को प्रकाश में बदलती है । आत्मा रूपी ऊर्जा को भी प्रकाश कहा गया है क्योंकि आत्मा का साक्षात्कार या आत्म अनुभूति होती है तो जीवन से अज्ञान समाप्त हो जाता है । अज्ञान को अन्धकार कहा जाता है जो आत्मा के प्रकाश अथवा आत्मज्ञान के प्रकाश से समाप्त होता है । इसलिए आत्मा को प्रकाश स्वरूप कहा जाता है ।
शरीर के गुण धर्म क्या हैं ?
शरीर प्रकृति के पांच तत्वों जल, धरती, वायु, अग्नि व आकाश का एक आनुपातिक समुच्च्य है । एक भी तत्व की कमी होने पर इन्द्रिया उसका संदेश मस्तिष्क के माध्यम से आत्मा को प्रेषित करती है और आत्मा उसी अनुरूप मन के संकल्पों द्वारा उस तत्व की पूर्ति हेतु शरीर के माध्यम से सक्रिय होती है । उदाहरण के लिए यदि शरीर में जल तत्व की कमी होती है तो हमें प्यास का अनुभव होता है और हम उसकी पूर्ति पानी पीकर करते हैं ।
आत्मा शरीर क्यों धारण करती है ?
कोई भी आत्मा अपनी समस्त इच्छाओं की पूर्ति एक जन्म में नहीं कर पाती है । मृत्यु का समय आने पर वह अपने किए हुए सभी कर्मों का लेखाजोखा समेटकर अपनी अपूर्ण कामनाएं पूर्ण करने के लिए दूसरे शरीर की तलाश में चल देती है। पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोगने के लिए उसे दूसरा शरीर प्राप्त हो जाता है।
आत्मा का आकार
भगवत गीता में आत्मा के अनुसार किसी बाल की नोक के सौवें हिस्से का भी सौवां हिस्सा किया जावे तब भी वह हिस्सा आत्मा के आकार से बड़ा ही होगा । आत्मा एक ऊर्जा है जो शरीर में अदृश्य रूप से सक्रिय रहती है । आत्मा एक अभौतिक ऊर्जा है जिसे भौतिक आंखों से नहीं दिख सकती । यहां तक कि आत्मा को किसी वैज्ञानिक उपकरण से भी नहीं देखा जा सकता ।
आत्मा का स्वरूप जलता हुआ दीपक
आत्मा को दीपक की लौ का रूप भी दिया गया है । जलते हुए दीपक की लौ का आकार अण्डाकार या अंगुष्ठाकार जैसा प्रतीत होता है । ध्यान अथवा मेडिटेशन के प्रयोजनार्थ लोग स्वयं को आत्म केन्द्रित करने के लिए दीपक अथवा मोमबत्ती की लौ को अपना आत्म स्वरूप मानकर चलते हैं ।
आत्मा शरीर में कहां रहती है ?
वैज्ञानिक मतानुसार आत्मा मस्तिष्क के अंदर हाइपोथैलेमस और पिट्यूटरी ग्रंथि के पास रहती है । एक राजा के समान आत्मा भी मस्तिष्क रूपी सिंघासन पर विराजमान होकर कर्मेन्द्रियों रूपी कर्मचारियों से कार्य करती है । आत्मा स्पर्श, गंध और स्वाद का अनुभव इन्द्रियों के माध्यम से करती है । आत्मा के निर्देश पर ही मस्तिष्क समस्त इन्द्रियों अर्थात् आंख, नाक, कान, जीभ और हाथों को नियंत्रित करता है ।
अदृश्य आत्मा शरीर का संचालन कैसे करती है ?
आत्मा द्वारा मन के माध्यम से उत्पन्न विचारों के संकेत मस्तिष्क ग्रहण कर उन्हें कर्मेन्द्रियों को निर्देश के रूप में प्रेषित करता है जो शरीर द्वारा की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं में परिवर्तित हो जाते हैं। आत्मा द्वारा विचारों के माध्यम से प्रेषित अदृश्य और अभौतिक निर्देशों को मस्तिष्क द्वारा भौतिक रूप देकर क्रिया में लाया जाता है ।
आत्मा का स्वरूप कम्प्युटर का साॅफ्टवेयर है
हम आत्मा और शरीर के आपसी सम्बन्ध की तुलना कम्प्युटर से भी कर सकते हैं। मस्तिष्क कम्प्युटर के सीपीयू या सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट की तरह है, जबकि आत्मा कम्प्युटर के प्रोग्रामर अथवा साॅफ्टवेयर की तरह है। हमारा मस्तिष्क ही आत्मा से प्राप्त सभी विचार, शब्द और क्रियाओं को शरीर के माध्यम से व्यक्त करता है। मस्तिष्क द्वारा इन्द्रियों को दिए गए निर्देशों का कर्म के रूप में प्रदर्शन करने के लिए कम्प्युटर के मॉनिटर की भूमिका शरीर निभाता है ।
आत्मा की विशेषता अथवा उपाधियां –
मनुष्य द्वारा किए गए कर्मों के आधार पर ही आत्मा की विशेषता निर्धारित होती है । सामाजिक प्राणी होने के नाते हर मनुष्य सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान और सम्पन्नता भरा जीवन पसन्द करता है । मनुष्य के कर्म ही उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा के रूप में उसे उपाधियां प्रदान करते हैं । याद रखें कि शरीर दृश्यमान होते हुए भी प्रत्येक उपाधि आत्मा को ही मिलती है । आईए जानते हैं कि कौनसे कर्म से आत्मा की कौनसी विशेषता निर्धारित होती है –
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देवात्मा – जिसका आचरण सम्पूर्ण रूप से निर्विकारी हो, जिसका जीवन सर्व गुणों से सम्पन्न हो, जो मर्यादाओं में उत्तम हो, जिसके प्रत्येक आचरण में अहिंसा झलकती हो, ऐसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्ति को देवात्मा कहा जाता है । सनातन धर्म ग्रन्थों में देवताओं को सम्पूर्ण पवित्र कहा गया है । साथ ही यह भी कहा गया है कि देवताओं के पावं पावन धरती पर ही पड़ते हैं । देवत्व ही आत्मा की सर्वोच्च अवस्था है ।
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धर्मात्मा – जब कभी हमारा समाज नैतिक बुराईयों से ग्रसित हुआ, तब ऐसी आत्मा ने धरा पर जन्म लिया और एक नई जीवन पद्धति का सूत्रपात किया जिसे दुखों से घिरे हुए लोगों ने अंगीकार किया और वह जीवन पद्धति धर्म बन गई । समाज को नई दिशा देने वाली जीवन पद्धति स्थापित करने वाली ऐसी आत्माओं ने यह कार्य तो शरीर के माध्यम से ही किया किन्तु उन्हें धर्मात्मा की उपाधि प्रदान की गई । इसीलिए धर्म स्थापकों को धर्मात्मा कहा जाता है ।
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महात्मा – कोई ऐसा व्यक्ति जो सम्पूर्ण जनमत का हृदय परिवर्तन करते हुए क्रान्ति के रूप में समाज सुधार का कार्य करता है, उसे महात्मा कहा जाता है । निश्चित रूप से ऐसे ही कार्य के फलस्वरूप मोहनदास कर्मचन्द गांधी को सारा संसार महात्मा गांधी की उपाधि के साथ ही सम्बोधित करता है ।
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पुण्यात्मा – हमारे आसपास ऐसे अनेक लोग हैं जो अपने सामर्थ्य अनुसार समाज में प्राणी मात्र के जीवन की सुरक्षा व सुविधा हेतु कार्य करते हैं । चिकित्सालय, पाठशाला, धर्मशाला, गौशाला आदि का निर्माण करवाने वाले ऐसे लोग पुण्यात्मा की उपाधि के योग्य बनते हैं ।
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पापात्मा – हमारे समाज में सदियों से अपराधिक प्रवृत्ति के लोग भी रहे हैं जो अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए, भौतिक सुखों की पूर्ति के लिए व साधन सम्पन्न बनने के लिए आय अर्जित करने की अनैतिक विधियां अपनाते हैं । इनका लगभग हर कर्म पापकर्म की श्रेणी में आता है । इसलिए ऐसे लोगों को पापात्मा की उपाधि मिलती है ।
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अंतिम शब्द
आत्मा की परिभाषा व उसके अस्तित्व की समझ होना अत्यन्त आवश्यक है । यही समझ हमारे जीवन को श्रेष्ठता की ओर ले जाने में सहायक होती है । आत्मा के गुण शांति, आनंद, प्रेम, आनंद, पवित्रता, शक्ति और ज्ञान हैं, जो हमारे कर्मों की गुणवक्ता अनुसार घटते बढ़ते हैं। यदि आत्मा सकारात्मक कर्म करती है, तो ये गुण बढ़ते हैं और यदि किए गए कर्म नकारात्मक हैं, तो वे कम हो जाते हैं। मुझे उम्मीद है कि इस आलेख से यह स्पष्ट हो गया होगा कि आत्मा का स्वरूप क्या है ।
जीवन को सुखी बनाने की सहज विधि एवं मंत्र
हर व्यक्ति का उद्देश्य यही है कि वह सुख, शान्ति और आनन्दमय जीवन व्यतीत करे । इस हेतु हमें हमारे मूल अस्तित्व अर्थात् आत्मा का ज्ञान होने के साथ साथ उसकी अर्थात् आत्मिक गुणों की स्मृति व अनुभूति होना भी आवश्यक है । आत्मा के गुणों का चिन्तन करते हुए उसका स्वरूप बनकर उन्हें अपने व्यक्तित्व में लाकर ही हम आत्म अनुभूति के उस शिखर पर पहुंच सकते हैं जहां पर केवल सुख शान्ति और आनन्द का अनन्त भण्डार है ।
इस कविता के माध्यम से जानिये जीवन में संयम का बल क्या महत्व रखता है
ओम शान्ति