मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जिसका मूल उद्देश्य जीवन पर्यन्त सुखानुभूति करना होता है, जिसके लिए वह सतत प्रयास भी करता है । लेकिन जीवन को सुखी बनाने की सहज विधि जाने बिना ही वह भौतिक संसाधनों की सहज उपलब्धता और आर्थिक सम्पन्नता को सुख की परिभाषा या अर्थ समझकर अपना पूरा जीवन उनकी प्राप्ति में गंवा देता है । मृत्यु की निकटता के समय उसे एहसास होता है कि भौतिक साधन व धन सम्पत्ति सुख की अनुभूति नहीं करा सकते ।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सुख का वास्तविक अर्थ जाने और समझे बिना कोई भी व्यक्ति अपना जीवन सुखी नहीं बना सकता । प्रस्तुत आलेख आपको सुखी जीवन की वास्तविक परिभाषा, जीवन में दुखों के आगमन का कारण व जीवन को सुखी बनाने की सहज विधि से अवगत कराएगा ।
सुखी जीवन का अर्थ –
सुख की अनुभूति का धन, सम्पत्ति या किसी भौतिक वस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं, बल्कि यह मन की एक अवस्था है । इसे पाना तभी सम्भव है जब हम निस्वार्थ भाव से अपने प्रत्येक विचार, वाणी और कर्म द्वारा हमारे सम्बन्ध सम्पर्क के लोगों के जीवन की दैनिक समस्याओं का सफलतापूर्वक समाधान कर उन्हें मानसिक सुकून का अनुभव कराते हैं । इसके प्रतिफल स्वरूप मिलने वाली शुभभावनाएं, दुआएं व आर्शीवाद ही सुखी जीवन की वास्तविक परिभाषा है ।
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अक्सर हम देखते हैं कि एक छोटा बच्चा समस्त भौतिक संसाधनों की अभिलाषा के बिना भी स्वाभाविक रूप से सुख अथवा प्रसन्नता का अनुभव करता है । ऐसी अवस्था प्राप्त करना हमारे लिए कठिन अवश्य हो सकता है किन्तु असम्भव नहीं । वास्तविक सुखानुभूति का द्वार खोलने के लिए आत्मविश्वास के साथ इस दिशा में सकारात्मक रूप से प्रयास किया जाना आवश्यक है ।
जीवन को सुखी बनाने की सहज विधि –
भैतिकता और इन्द्रिय सुखों पर आधारित जीवन शैली के कारण हम अपनी आत्मिक पहचान भूल जाते हैं । इसलिए हमारे नाम, उम्र, लिंग, रूप, बाहरी व्यक्तित्व, शिक्षा, पेशा, सम्बन्ध, राष्ट्रीयता, भाषा, धर्म आदि जैसी अनेक भौतिक पहचानों को हम अपना वास्तविक परिचय समझकर अपने आप से अर्थात अपनी ही आत्मिक पहचान से विस्मृत होने लगते हैं ।
प्रत्येक जन्म में धारण किए गए शरीर के माध्यम से प्राप्त इन भौतिक पहचानों का प्रभाव जीवन पर्यन्त हमारे साथ चलने के कारण प्रत्येक जन्म के साथ साथ आत्मा की स्मृति अनेक परतों के नीचे दब जाती है।
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अपने शरीर की इन्द्रियो से मिलने वाले क्षणिक सुखों व भौतिक पहचान के अधीन होने के फलस्वरूप हम आत्मिक शक्तियां गंवाते गंवाते थकने लगते हैं । इसी कारण हमारा मन सच्ची खुशी, आनन्द और शांति का अभाव महसूस करता है। तो आइए जानते हैं – जीवन को सुखी बनाने की विधि –
जीवन को सुखी बनाने की आत्म चिन्तन द्वारा स्वयं की परख की विधि –
स्वयं का आत्मिक स्वरूप विस्मृत होने के कारण हमारे जीवन का आधार भौतिक वस्तुएं, लौकिक सम्बन्ध, सामाजिक प्रतिष्ठा, आर्थिक सम्पन्नता आदि चीजें बन जाती है । इनसे सम्पन्न होने के प्रयासों में हम अपनी आत्मिक शक्ति को गंवा देते हैं ।
हम उन चीजों के प्रति आसक्त हो जाते हैं जो हमारी मृत्यु होते ही हमसे छूटने वाली हैं। यही आसक्ति हमारे मन में भौतिक वस्तुओं और लौकिक सम्बन्धों से बिछड़ने का भय जागृत करके हमारा आत्मिक स्वरूप भुलाने का कारण बनती है।
भौतिक वस्तुओं, धन सम्पत्ति व लौकिक सम्बन्धों के प्रति आसक्ति ही जीवन में वास्तविक सुख की अनुभूति में बाधक बनती है । सुखी जीवन के लिए इस प्रकार की आसक्ति से स्वयं को मुक्त करना आवश्यक है ।
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आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा जीवन को सुखी बनाने की सहज विधि –
हमारा जीवन स्मृति और विस्मृति का खेल है । जैसी हमारी स्मृति होती है, वैसा ही हमारा जीवन बन जाता है । सुखी जीवन बनाने के लिए हमें स्मृति के स्तर पर प्रयास करने होंगे । अपनी स्मृति में गुणों और विशेषताओं को जितना स्थान देंगे, उतना ही हम उनका स्वरूप बनते जाएंगे । निम्नांकित व्याख्या के द्वारा हम जीवन को सुखी बनाने की सहज विधि समझ सकते हैं –
हमें आत्म स्मृति में स्थित होकर सर्व गुणों और सर्व शक्तियों के मूल स्रोत परमात्मा से मन बुद्धि से जुडकर स्वयं में सभी गुणों और शक्तियों की प्राप्ति का अनुभव करते हुए प्रत्येक कर्म करना होगा । यह स्मृति अभ्यास में लाने से हम अपनी आत्मिक ऊर्जा को और नहीं खोएंगे और स्वयं को दिव्य गुणों और शक्तियों से सम्पन्न बनाने में सक्षम होंगे ।
यह आत्मिक उन्नति ना केवल हमारा बल्कि दूसरों का जीवन सुख, शांति और आनन्द से भरपूर बनाएगी और सारी दुनिया को स्वर्ग का रूप प्रदान करेगी। हमारे द्वारा धारण किए गए श्रेष्ठ संस्कार ना केवल इस जन्म में साथ रहेंगे बल्कि आने वाले अनेक जन्मों तक हमें सुख प्रदान करेंगे।
इसलिए प्रतिदिन हमें अपनी दैहिक पहचान कुछ देर के लिए भूलकर स्वयं को अपने आत्म स्वरूप की स्मृति में बिठाने का अभ्यास करना चाहिए। इस अभ्यास को राजयोग कहते हैं, जिसे रोज करने से स्वतः ही आत्मा में दिव्य गुणों की पुनर्स्थापना होती है, जिसके प्रभाव से हमारा व्यक्तित्व दिन प्रतिदिन निखरने लगता है।
जीवन को सुखी बनाने की सहज विधि – आत्मविश्वास व सकारात्मक विचारधारा
जीवन में आने वाली परिस्थितियों से शिक्षा लेकर अपना सकारात्मक परिवर्तन करने वाला ही आत्मविश्वास से भरपूर होकर भविष्य में आने वाली हर परिस्थिति पर सफलतापूर्वक विजय प्राप्त करता है जो उसे सुख का मीठा अनुभव कराती है । इसलिए सुखी जीवन के लिए आत्मविश्वास से भरपूर सकारात्मक विचारधारा होनी आवश्यक है ।
सुख का अनुभव क्यों नहीं होता –
यदि हम जीवन में मौजूद दुखों की अधिकता का मूल कारण जान लेंगे तो निश्चित रूप से उनका समाधान कर सुखी जीवन की अनुभूति निरन्तर कर सकेंगे । आध्यात्मिक दृष्टिकोण से निम्नांकित बिन्दू हमें दुखी जीवन के वास्तविक कारणों से हमारा परिचय कराएंगे –
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पंच तत्वों से गठित नश्वर देह पाकर जब एक आत्मा अपनी जीवनयात्रा आरम्भ करती है तो उसे अपने नाम, धर्म, कर्म, संस्कार, व्यवहार, जीवन शैली, पारिवारिक पृष्ठभूमि व लौकिक सम्बन्धों के आधार पर अपने वर्तमान जन्म तक सीमित रहने वाली अस्थाई पहचान मिलती है ।
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हमारा नाम, पद व सामाजिक प्रतिष्ठा केवल वर्तमान जन्म तक ही हमारी पहचान है, जिसके आधार पर जीवन संचालित करते करते आत्मा अपने वास्तविक सत्य स्वरूप की स्मृति से परे होती जाती है।
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स्वयं का आत्मिक स्वरूप विस्मृत होने के कारण हमारे जीवन का आधार भौतिक वस्तुएं, लौकिक सम्बन्ध, सामाजिक प्रतिष्ठा, आर्थिक सम्पन्नता आदि चीजें बन जाती है । इनसे सम्पन्न होने के प्रयासों में हम अपनी आत्मिक शक्ति को गंवा देते हैं ।
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आत्मा अपने आप में सतोगुणी है अर्थात् ज्ञान, शान्ति, पवित्रता, प्रेम, सुख, आनन्द और शक्ति का पुंज है । इन गुणों का स्वरूप बनकर रहने से ही जीवन सुखी बनता है। किंतु भौतिकता और इन्द्रियजनित क्षणिक सुखों की लालसा ने इन सभी गुणों को निगल लिया है ।
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अनेक जन्मों की यात्रा करके हम आज अपनी शाश्वत आध्यात्मिक पहचान को पूर्णतः भूल चुके हैं। इसलिए आज का मनुष्य जन्म लेने के बाद समझ पकड़ते ही अनेक प्रकार के मानसिक तनावों में घिर जाता है, उसका जीवन समस्याओं का जंजाल बन जाता है, इन्द्रियां अनियंत्रित रहने लगती है, अवसाद रूपी घने बादल सदा उमड़े रहते हैं और वह स्वयं को एक थका और हारा हुआ समझने लगता है।
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हर परिस्थिति व घटना के प्रति नकारात्मक व अवसादग्रस्त दृष्टिकोण ही सुख के क्षणों में भी दुख की अनुभूति कराता है ।
इच्छाओं की अधिकता के कारण उत्पन्न असन्तोष, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य आदि मन की ऐसी अवस्थाएं हैं जो सामान्य परिस्थितियों में भी हमें दुख व अशान्ति का अनुभव कराती है ।
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सुखी होने के लिए क्या आवश्यक है –
सुख ऐसी अनुभूति है जिसका सम्बन्ध मन की अवस्था से है, जिसमें भौतिक व आर्थिक सम्पन्नता का नाम मात्र का भी योगदान नहीं होता । सुखी होने के लिए हमारे आचरण व व्यक्तित्व से कुछ ऐसे गुण अथवा विशेषताएं झलकनी चाहिए जो स्वतः ही हमारे चारों और सुखानुभूति का वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।
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सन्तोष – यह जानते हुए भी कि समस्त इच्छाओं को पूर्ण करना सम्भव नहीं, फिर भी लोग अपने मन में अनेक इच्छाएं पालते हैं। अधूरी इच्छाएं असन्तोष उत्पन्न करती है, जिसके पीछे पीछे मन में जलन, लालच जैसी भावनाएं जन्म लेकर जीवन की खुशियां समाप्त कर देती है ।
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मानसिक आत्मनिर्भरता – सामाजिक व्यवस्था पारस्परिक सहयोग के आदान प्रदान से संचालित होती है । किन्तु छोटी छोटी समस्याओं में भी सहयोग की अपेक्षा रखते हुए दूसरों पर निर्भर रहना मानसिक दुर्बलता व दरिद्रता है । इससे हमारा आत्मविश्वास, कार्यक्षमता व मनोबल का ह्रास होता है और मन में भिक्षावृत्ति का उदय होने से हम हीनभावना का शिकार हो जाते हैं । इसलिए आत्मनिर्भरता का गुण सुखी जीवन का मूल मंत्र समझकर अपनाना चाहिए ।
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भावनाओं की शुद्धता – हर मनुष्य अपने मन में उत्पन्न भावनाओं से प्रेरणा लेकर कर्म करता है । अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहने वाले लोग अक्सर निराशा, अवसाद और कुण्ठा से ग्रसित नजर आते हैं । दूसरी ओर जो लोग शुद्ध भावनाएं रखते हुए परमार्थ सेवा एवं जनकल्याण का कार्य करते हैं, उनके चेहरे पर सुकून भरी मधुर मुस्कान हमेशा छाई रहती है । इसलिए सुखी जीवन के लिए हमारी भावनाएं शुद्ध होनी आवश्यक है ।
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सद्बुद्धि का पालन – हमारी बुद्धि की गुणवक्ता ही हमारे व्यक्तित्व तथा जीवन का निर्माण करती है । सबके प्रति शुभ सोचने वाला, भला चाहने वाला और उसी अनुरूप कर्म करने वाला जीवन में हमेशा सफलता प्राप्त करता है । अच्छे स्वभाव वाले व्यक्ति को सभी का सानिध्य प्राप्त होता है जिससे जीवन के हर चरण पर उसे सहयोग मिलता रहता है । इसलिए सुखी जीवन के लिए हमें अपनी बुद्धि को शुद्ध बनाते रहना चाहिए ।
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कर्तव्यनिष्ठा या सत्यनिष्ठा – अपनी जिम्मेदारियों के प्रति पूर्ण रूप से ईमानदार व्यक्ति सबकी प्रसंशा, सम्मान व दुआओं का सुपात्र बनकर हमेशा प्रसन्न रहता है । इसलिए सुखी जीवन के लिए हमारा कर्तव्यनिष्ठ व सत्यनिष्ठ होना परम आवश्यक है ।
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स्वस्थ शरीर – प्रकृति से हमें शरीर रूपी सर्वाेत्तम उपहार मिला है, जिसके माध्यम से हम विभिन्न रचनात्मक कार्य करके सुखानुभूति कर सकते हैं । इसके लिए शरीर का स्वस्थ होना परम आवश्यक है । एक बीमार व्यक्ति रोगों की वेदना के कारण अपना दैनिक कार्य भी ठीक से नहीं कर सकता । इसलिए सुखी होने के लिए अपने शरीर को स्वस्थ बनाए रखना चाहिए।
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गुण सम्पन्न व्यक्तित्व – एक गुणवान व्यक्ति अपने परिवार, समाज, शहर और देश की शोभा होता है । गुणों के आधार पर वह जीवन के हर क्षेत्र में सफल भी होता है और सभी का सम्मान भी प्राप्त करता है । इसलिए सुखी जीवन के लिए हमें अपना व्यक्तित्व गुणों से सम्पन्न बनाना चाहिए ।
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सुखी वैवाहिक जीवन के मंत्र –
हमारे जन्म लेते ही माता, पिता, भाई व बहन हमें सम्बन्ध के रूप में मिलते हैं, किन्तु जीवन साथी का चुनाव हम स्वयं करते हैं । जीवन साथी का केवल रूपवान होना ही सुखी वैवाहिक जीवन का आधार नहीं होता । वैवाहिक जीवन की सफलता कुछ विशेष गुणों पर निर्भर करती है, जो हम निम्नांकित व्याख्या से जानेंगे –
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सहयोग – अक्सर लोग स्वयं के भौतिक सुख, आराम व शारीरिक तुष्टि को प्राथमिकता देकर विवाह करते हैं और थोड़े ही समय में आपसी मनमुटाव व विवाद की स्थिति बन जाती है । एक दूसरे का आपसी सहयोग करना सुखी वैवाहिक जीवन का मूल मंत्र है ।
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सम्मान – किसी न किसी गलती पर एक दूसरे को अपमानित करते रहने से वैवाहिक जीवन में कलह की स्थिति उत्पन्न होने लगती है । इसलिए पति पत्नी को एक दूसरे के प्रति सम्मान रखना चाहिए ।
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विश्वास – शक या वहम किसी भी रिश्ते के लिए विष के समान है । इसलिए वैवाहिक जीवन में पति पत्नी को एक दूसरे का विश्वास भंग करने जैसा कोई भी कृत्य नहीं करना चाहिए ।
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संयम – वैवाहिक जीवन केवल शारीरिक सुखानुभूति के लिए नहीं होता, बल्कि उससे भिन्न ऐसा पवित्र बन्धन है जिसमें जीवन के अनेक क्षेत्रों में सुखानुभूति की जा सकती है।
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मित्रता – अपने जीवन की हर व्यक्तिगत समस्या के बारे में पति पत्नी को एक दूसरे का घनिष्ठ मित्र समझकर उसके बारे में चर्चा करनी चाहिए । आपसी मित्रभाव से जीवन में आने वाली किसी भी परिस्थिति को पार करना आसान हो जाता है ।
सुख प्राप्ति का मूल स्रोत –
जीवन को सुखी बनाने की सहज विधि अपनाने के लिए हमें यह ज्ञान होना आवश्यक है कि भौतिक संसाधनों से अथवा धन दौलत से सुख का अनुभव करना असम्भव है । सुख का सम्बन्ध मन की भावनाओं से है । इसलिए हमें सुख प्राप्ति का मूल स्रोत जानना आवश्यक है, उसके परिचय बिना व उससे सम्पर्क किए बिना हम सुखी जीवन के लिए आवश्यक गुण व विशेषताओं को स्वयं में जागृत नहीं कर सकते । निम्नांकित व्याख्या द्वारा हम उस मूल स्रोत का परिचय प्राप्त करेंगे –
अक्सर जीवन में आने वाली विकट समस्याओं के समय हमारा ध्यान आसमान में परम शक्ति की ओर इस भावना से जाता है कि उसके पास सभी समस्याओं का समाधान है । उस परम शक्ति को कोई भगवान या ईश्वर कहता है, कोई अल्ला या खुदा कहता है, कोई गॉड कहता है और कोई उसे परमात्मा कहता है ।
परमात्मा हमारे जीवन की हर समस्या का कारण व निवारण अवश्य बतलाता है । परमात्मा हमें हमारी वास्तविक पहचान बताता है कि हम शरीर नहीं बल्कि आत्मा हैं। आत्मा की स्मृति आने से हमारे भीतर सही समझ, विवेक और बुद्धि जागृत होती है । हमें स्वतः ही हमारे गुणों को विकसित करने एहसास होने लगता है ।
जब हमें यह स्मृति दृढ़ होने लगती है कि हम सात गुणों (ज्ञान, शांति, पवित्रता, प्रेम, सुख, आनन्द और शक्ति) का पुंज निराकार ज्योति स्वरूप आत्मा हैं, तब हमारे व्यक्तित्व में सर्व गुण और सर्व शक्तियां जागृत होने लगती है जिनके प्रभाव से सारा जीवन सुख, शांति और आनन्द से भरपूर रहता है ।
अन्तिम शब्द
स्वयं को गुणवान बनाने की उक्त विधि को सहज राजयोग कहा जाता है । सूर्याेदय से पूर्व इसका अभ्यास करने से हमें सर्वाधिक लाभ होता है । इससे हमारे समस्त अवगुण नष्ट होते हैं और अन्तर्मन में सुप्त पड़े अनेक दिव्य गुण जागृत होते हैं । राजयोग का सतत अभ्यास ही जीवन को सुखी बनाने की सहज विधि है जिसे दिनचर्या में शामिल करके अपना जीवन सदा के लिए सुखी बनाइए ।
ऊँ शान्ति
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